Wednesday, 11 April 2012

इश्क़ की हंडिया


जिसे भी देखिये वो इश्क़  की  हंडिया चढ़ा बैठा |
हज़ारों चेलियों के साथ में   खिचड़ी  पका  बैठा ||

मनाया था बड़ी मुश्किल से मैंने  इक परी रू को |
उसे कमबख़्त मेरा  ही चचा  इक दिन पटा बैठा ||

किया था चाट की ठेली पे  उसका  घंटो  इंतेज़ार |
मगर रस्ते में ही कोई उसे पिज़्ज़ा  खिला  बैठा ||

बनाया  हर  घड़ी  उल्लू  मेरा   इन  नाज़नीनों ने |
इन्ही के  फेर में पड़ कर मैं हस्ती  को मिटा बैठा ||

जिधर  से भी गुज़रता हूँ यही  आवाज़  आती   है |
निकम्मा है   ये अपने बाप की लुटिया  डुबा बैठा ||

न जाने क्या लिखा है शक्ल पर मेरी  ख़ुदा ने भी |
जिसे  भी प्यार से देखा  उसी   से  मार  खा  बैठा ||

मरम्मत जब हुई ‘सैनी’की सारा ख़ानदान उसका |
सभी हथियार उस पर आज तक तो आज़मा बैठा ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी