जिसे भी देखिये वो इश्क़ की हंडिया चढ़ा बैठा |
हज़ारों चेलियों के साथ में खिचड़ी पका बैठा ||
मनाया था बड़ी मुश्किल से मैंने इक परी रू को |
उसे कमबख़्त मेरा ही चचा इक दिन पटा बैठा ||
किया था चाट की ठेली पे उसका घंटो इंतेज़ार |
मगर रस्ते में ही कोई उसे पिज़्ज़ा खिला बैठा ||
बनाया हर घड़ी उल्लू मेरा इन नाज़नीनों ने |
इन्ही के फेर में पड़ कर मैं हस्ती को मिटा बैठा ||
जिधर से भी गुज़रता हूँ यही आवाज़ आती है |
निकम्मा है ये अपने बाप की लुटिया डुबा बैठा ||
न जाने क्या लिखा है शक्ल पर मेरी ख़ुदा ने भी |
जिसे भी प्यार से देखा उसी से मार खा बैठा ||
मरम्मत जब हुई ‘सैनी’की सारा ख़ानदान उसका |
सभी हथियार उस पर आज तक तो आज़मा बैठा ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
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