Thursday, 20 June 2013

दुलत्ती

मैं    मैकदे    गया    हूँ   जब-जब   उधार   पीने । 
सच-सच   कहूँ  नहीं  की  मेरी  मदद  किसी  ने ॥ 

जब -जब  किसी  गधे  को  मैं बाप कह के बोला । 
 इन  इनआम  में  दुलत्ती  बस  झाड  दी उसी ने ॥ 

जिन -जिन को मैंने अक्सर ही मुफ़्त में पिलाई । 
मुझको   हुई   तलब  तो  निकले  सभी  कमीने ॥ 

अब   जेब   भी   है  ख़ाली  चेहरा  बुझा-बुझा  है । 
मुझको  न  घास  डाली  इक  भी  तो सुन्दरी ने ॥ 

हर  ब्रांड  की  सजा  कर  रक्खी है घर में सैंडल । 
जिस-जिस  गली  पिटा  हूँ  सौगात  दी सभी ने ॥ 

मारे   इधर-उधर   से   कुछ  मिसरे  शायरों के । 
ग़ज़लों  में  जान  फूंकी  मुझ  जैसे  आदमी ने ॥ 

ग़ालिब  के  बाद 'सैनी ' है  इश्क़  में  निकम्मा । 
फ़ाक़ों   में   कट  रहे   दिन ,साल ,क्या  महीने ॥ 

डा o सुरेन्द्र सैनी