मैं मैकदे गया हूँ जब-जब उधार पीने ।
सच-सच कहूँ नहीं की मेरी मदद किसी ने ॥
जब -जब किसी गधे को मैं बाप कह के बोला ।
इन इनआम में दुलत्ती बस झाड दी उसी ने ॥
जिन -जिन को मैंने अक्सर ही मुफ़्त में पिलाई ।
मुझको हुई तलब तो निकले सभी कमीने ॥
अब जेब भी है ख़ाली चेहरा बुझा-बुझा है ।
मुझको न घास डाली इक भी तो सुन्दरी ने ॥
हर ब्रांड की सजा कर रक्खी है घर में सैंडल ।
जिस-जिस गली पिटा हूँ सौगात दी सभी ने ॥
मारे इधर-उधर से कुछ मिसरे शायरों के ।
ग़ज़लों में जान फूंकी मुझ जैसे आदमी ने ॥
ग़ालिब के बाद 'सैनी ' है इश्क़ में निकम्मा ।
फ़ाक़ों में कट रहे दिन ,साल ,क्या महीने ॥
डा o सुरेन्द्र सैनी
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