Friday, 13 September 2013

जान हो जाती

तेरे अब्बू से गर मेरी ज़रा पहचान हो जाती ।
तेर कूचे में आमद बस मेरी आसान हो जाती ॥

पड़े हैं आज तक जूते तेरी गलियों में जो मुझको ।
इकठ्ठे गर मैं कर लेता मेरी दूकान हो जाती ॥

ख़ुदा ने दे दिया होता मुझे भी रंग अगर थोड़ा ।
हसीना हर मेरे घर की भी तो मेहमान हो जाती ॥

सुपारी दे गया मेरी तेरा मामू कसाई को ।
तेरी मामी ही ख़ुद अब क्यूँ  नहीं कुर्बान हो जाती ॥

तुझे भेजी थी कल चिठ्ठी दिखादी सबको वो तूने ।
वगरना यूँ न इक चिठ्ठी बबाल-ए -जान हो जाती ॥

महल्ले में अकेला मैं ही इक नाकाम आशिक हूँ ।
ख़ुदाया आशिक़ी मेरी अज़ीम-उश्शान हो जाती ॥

फ़क़ीरी भेस में 'सैनी'मुंडा कर दाढी ,मूछ -ओ -सर ।
अभी भी सोचता है कोई उसकी जान हो जाती ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

जान हो जाती

तेरे अब्बू से गर मेरी ज़रा पहचान हो जाती ।
तेर कूचे में आमद बस मेरी आसान हो जाती ॥

पड़े हैं आज तक जूते तेरी गलियों में जो मुझको ।
इकठ्ठे गर मैं कर लेता मेरी दूकान हो जाती ॥

ख़ुदा ने दे दिया होता मुझे भी रंग अगर थोड़ा ।
हसीना हर मेरे घर की भी तो मेहमान हो जाती ॥

सुपारी दे गया मेरी तेरा मामू कसाई को ।
तेरी मामी ही ख़ुद अब क्यूँ  नहीं कुर्बान हो जाती ॥

तुझे भेजी थी कल चिठ्ठी दिखादी सबको वो तूने ।
वगरना यूँ न इक चिठ्ठी बबाल-ए -जान हो जाती ॥

महल्ले में अकेला मैं ही इक नाकाम आशिक हूँ ।
ख़ुदाया आशिक़ी मेरी अज़ीम-उश्शान हो जाती ॥

फ़क़ीरी भेस में 'सैनी'मुंडा कर दाढी ,मूछ -ओ -सर ।
अभी भी सोचता है कोई उसकी जान हो जाती ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

जान हो जाती

तेरे अब्बू से गर मेरी ज़रा पहचान हो जाती ।
तेर कूचे में आमद बस मेरी आसान हो जाती ॥

पड़े हैं आज तक जूते तेरी गलियों में जो मुझको ।
इकठ्ठे गर मैं कर लेता मेरी दूकान हो जाती ॥

ख़ुदा ने दे दिया होता मुझे भी रंग अगर थोड़ा ।
हसीना हर मेरे घर की भी तो मेहमान हो जाती ॥

सुपारी दे गया मेरी तेरा मामू कसाई को ।
तेरी मामी ही ख़ुद अब क्यूँ  नहीं कुर्बान हो जाती ॥

तुझे भेजी थी कल चिठ्ठी दिखादी सबको वो तूने ।
वगरना यूँ न इक चिठ्ठी बबाल-ए -जान हो जाती ॥

महल्ले में अकेला मैं ही इक नाकाम आशिक हूँ ।
ख़ुदाया आशिक़ी मेरी अज़ीम-उश्शान हो जाती ॥

फ़क़ीरी भेस में 'सैनी'मुंडा कर दाढी ,मूछ -ओ -सर ।
अभी भी सोचता है कोई उसकी जान हो जाती ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी