Monday, 21 October 2013

मुर्दा आशिक़ विदाउट कफ़न

मुर्दा आशिक़ पडा है विदाउट कफ़न सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ।
जब न दिलबर की देखी ज़बीं पे शिकन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

लोग दर्ज़ी से जा कर झगड़ने लगे क्यूँ सिलाई हुई महंगी पतलून की ।
ज़िप के आगे नदारद हुए जब बटन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

जब भी अब्बू को दलिया दिया मील में बारहा हाजमे की शिकायत रही ।
आज देखा चबाते हुए जब मटन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

रोज़ मिलता रहा है रक़ीबों से वो और हमको ही झूठा बताता रहा ।
देखी आँखें हमारी नहीं थे बटन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

आ गयी जब गली में वो चंचल हसीँ मेरे बालों ने माँगा है मुझसे ख़िज़ाब ।
मैं भी लेने लगा रोज़ ही जब टशन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

उम्र परवाज़ लेने लगी रात दिन जोश अब वो कलम में रहा ही कहाँ ।
इश्क़ में देख मेरा ये चाल-ओ-चलन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

थी हसीनाओं की रोज़ फ़रमाइशें कुछ अलग ही कहूँ कुछ निराला कहूँ ।
जब न पूरा हुआ 'सैनी' का ये मिशन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी   

Thursday, 3 October 2013

हिम्मत कहाँ

तेरे कूचे में जो आऊँ अब मेरी हिम्मत कहाँ ।
तेरे घरवालो से पिट कर अब बची ताक़त कहाँ ॥

आ गया घर में तुम्हारे इक विदेशी डॉग जब ।
अब भला ससुराल  में दामाद की इज्ज़त कहाँ ॥

नेट हो या फोन हो तुम चिपकी रहती रात-दिन ।
मुझ ग़रीब आशिक़  का ख़त पढने की है फ़ुर्सत कहाँ ॥

मैं सहेली से तुम्हारी कह तो दूँ क़िस्सा -ए -ग़म ।
पर उसे पिज़्ज़ा खिलाने को रही दौलत कहाँ ॥

आज महँगाई ने तोडी है कमर मेरी सनम ।
इश्क़ में ख़र्चा करूँ तो वो मेरी उजरत कहाँ ॥

फिर रहा हूँ ओढ़ कर मैं अब लिबास-ए -आशिक़ी ।
देखिये ले जायेगी अब ये मुझे क़िस्मत कहाँ ॥

रोज़ समझाता रहा 'सैनी' मगर माना नहीं ।
इश्क़ भूखे पेट करने में भला जन्नत कहाँ ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 1 October 2013

की फ़र्क़ पैंदा है अब

सर से गंजा है तू और काना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ।
घाघ आशिक़ बड़ा ही पुराना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

मेरे कूचे तू में रोज़ पिटता रहा कुछ असर तुझपे फिर भी कभी न हुआ ।
आज तक भी नहीं हार माना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

है लफंगा भी तू और लुच्चा भी तू एबदारी का बेताज है बादशाह ।
सारी शैतानियों का ख़ज़ाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

ढूंढ लेता है सब देख  लेता है सब रोशनी हो या फिर हो अन्धेरा घना ।
एक उल्लू के जैसा सयाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

यूँ  अंदर भरी खूब मक्कारियां तू हसीनों की करता हैं एयारियाँ ।
शक्ल-ओ-सूरत से तो सूफ़ियाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

आशनाई रक़ीबों  से तेरी रही और मुझसे भी निस्बत दिखाता रहा ।
सब रक़ीबों का इक आशियाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

रोज़ कहता है 'सैनी ' की ग़ज़लें बुरी उनका पढ़ना भी तुझको गवारा नहीं ।
फिर भी लगता उसी का दीवाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी