तेरे कूचे में जो आऊँ अब मेरी हिम्मत कहाँ ।
तेरे घरवालो से पिट कर अब बची ताक़त कहाँ ॥
आ गया घर में तुम्हारे इक विदेशी डॉग जब ।
अब भला ससुराल में दामाद की इज्ज़त कहाँ ॥
नेट हो या फोन हो तुम चिपकी रहती रात-दिन ।
मुझ ग़रीब आशिक़ का ख़त पढने की है फ़ुर्सत कहाँ ॥
मैं सहेली से तुम्हारी कह तो दूँ क़िस्सा -ए -ग़म ।
पर उसे पिज़्ज़ा खिलाने को रही दौलत कहाँ ॥
आज महँगाई ने तोडी है कमर मेरी सनम ।
इश्क़ में ख़र्चा करूँ तो वो मेरी उजरत कहाँ ॥
फिर रहा हूँ ओढ़ कर मैं अब लिबास-ए -आशिक़ी ।
देखिये ले जायेगी अब ये मुझे क़िस्मत कहाँ ॥
रोज़ समझाता रहा 'सैनी' मगर माना नहीं ।
इश्क़ भूखे पेट करने में भला जन्नत कहाँ ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी
तेरे घरवालो से पिट कर अब बची ताक़त कहाँ ॥
आ गया घर में तुम्हारे इक विदेशी डॉग जब ।
अब भला ससुराल में दामाद की इज्ज़त कहाँ ॥
नेट हो या फोन हो तुम चिपकी रहती रात-दिन ।
मुझ ग़रीब आशिक़ का ख़त पढने की है फ़ुर्सत कहाँ ॥
मैं सहेली से तुम्हारी कह तो दूँ क़िस्सा -ए -ग़म ।
पर उसे पिज़्ज़ा खिलाने को रही दौलत कहाँ ॥
आज महँगाई ने तोडी है कमर मेरी सनम ।
इश्क़ में ख़र्चा करूँ तो वो मेरी उजरत कहाँ ॥
फिर रहा हूँ ओढ़ कर मैं अब लिबास-ए -आशिक़ी ।
देखिये ले जायेगी अब ये मुझे क़िस्मत कहाँ ॥
रोज़ समझाता रहा 'सैनी' मगर माना नहीं ।
इश्क़ भूखे पेट करने में भला जन्नत कहाँ ॥
डा० सुरेन्द्र सैनी
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