Thursday, 3 October 2013

हिम्मत कहाँ

तेरे कूचे में जो आऊँ अब मेरी हिम्मत कहाँ ।
तेरे घरवालो से पिट कर अब बची ताक़त कहाँ ॥

आ गया घर में तुम्हारे इक विदेशी डॉग जब ।
अब भला ससुराल  में दामाद की इज्ज़त कहाँ ॥

नेट हो या फोन हो तुम चिपकी रहती रात-दिन ।
मुझ ग़रीब आशिक़  का ख़त पढने की है फ़ुर्सत कहाँ ॥

मैं सहेली से तुम्हारी कह तो दूँ क़िस्सा -ए -ग़म ।
पर उसे पिज़्ज़ा खिलाने को रही दौलत कहाँ ॥

आज महँगाई ने तोडी है कमर मेरी सनम ।
इश्क़ में ख़र्चा करूँ तो वो मेरी उजरत कहाँ ॥

फिर रहा हूँ ओढ़ कर मैं अब लिबास-ए -आशिक़ी ।
देखिये ले जायेगी अब ये मुझे क़िस्मत कहाँ ॥

रोज़ समझाता रहा 'सैनी' मगर माना नहीं ।
इश्क़ भूखे पेट करने में भला जन्नत कहाँ ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

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