Tuesday, 1 October 2013

की फ़र्क़ पैंदा है अब

सर से गंजा है तू और काना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ।
घाघ आशिक़ बड़ा ही पुराना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

मेरे कूचे तू में रोज़ पिटता रहा कुछ असर तुझपे फिर भी कभी न हुआ ।
आज तक भी नहीं हार माना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

है लफंगा भी तू और लुच्चा भी तू एबदारी का बेताज है बादशाह ।
सारी शैतानियों का ख़ज़ाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

ढूंढ लेता है सब देख  लेता है सब रोशनी हो या फिर हो अन्धेरा घना ।
एक उल्लू के जैसा सयाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

यूँ  अंदर भरी खूब मक्कारियां तू हसीनों की करता हैं एयारियाँ ।
शक्ल-ओ-सूरत से तो सूफ़ियाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

आशनाई रक़ीबों  से तेरी रही और मुझसे भी निस्बत दिखाता रहा ।
सब रक़ीबों का इक आशियाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

रोज़ कहता है 'सैनी ' की ग़ज़लें बुरी उनका पढ़ना भी तुझको गवारा नहीं ।
फिर भी लगता उसी का दीवाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

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