Wednesday, 2 April 2014

दिमाग़ी ख़लल

छा गया महफ़िल में करके मैं बुराई और की । 
हर ग़ज़ल पर दाद लूटी जब सुनाई और की ॥ 

मैं कुंवारा खाट पर रो-रो के बदलूं करवटें । 
हो रही मेरे ही आँगन में सगाई और की ॥ 

पेट हो जाता है मोटा और थुल-थुल ये बदन । 
रास आ जाए किसी को जब कमाई और की ॥ 

लोग समझाते हैं मुझको रात-दिन ये फ़लसफ़ा । 
अच्छे ख़ुद के बाल-बच्चे पर लुगाई और की ॥ 

तीन तंदूरी चिकन खाके वो सोया रात भर । 
नींद पर अपने खराटों से उड़ाई और की ॥ 

कामयाबी इस तरह उस शख़्स ने पायी यहाँ । 
भैंस अपनी तो बचाई पर चुराई और की ॥ 

आँख के अंधे मेरे दिलबर के हैं अब्बू मियाँ । 
मेरे चक्कर में किये जाएँ धुनाई और की ॥ 

मुफ़्तखोरों के भला क्या आप समझेंगे उसूल । 
आपका खाकर भी करदें ये बड़ाई और की ॥ 

कोयले की की दलाली हाथ काले ही रहे । 
छोड़ दे 'सैनी' तू करनी अब भलाई और की ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी  

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