तलुवे मलता नौकर है |
सपने बुनता अफ़सर है ||
दफ़्तर वाले हैं सब गुम |
अफ़सर भी तो घर पर है ||
रपटों में अच्छी फसलें |
पर धरती तो बंजर है ||
अर्ज़ी बाबू ने ले ली |
अब साहब के ऊपर है ||
तेवर उसके दरिया से |
कहने को क़तरा भर है ||
तन्हा इक तूफाँ में मैं |
सारा कुनबा घर पर है ||
तासीर इसकी शबनम सी |
शोला इसके भीतर है ||
ये वालिद ज़रदारों का |
क्यूँ बेचारा बेघर है ?
बाहर क्यूँ ढूंढा तुमने ?
दुश्मन घर के भीतर है ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
No comments:
Post a Comment