चाय -पानी से फ़क़त अब न मानता बाबू |
बात नोटों की करे क़ीमती हुआ बाबू ||
लाख चिल्लाए या सर को कोई पीटे अफ़सर |
यूँ न फ़ाइल का कभी देता रास्ता बाबू ||
अपनी करनी पे वो आ जाए फिर तो क्या कहने |
तब तो बन जाए तुम्हारा ही दिलरुबा बाबू ||
बात इससे तो हमेशा करो सलीक़े से |
कुछ ही नोटों में ये ला देता ज़लज़ला बाबू ||
जो न समझे है ख़ुदा को समझ ले वो इसको |
अपने दफ़्तर का वो ख़ुद होता है ख़ुदा बाबू ||
हो अगर टेढा तो क़ाबू में आ जाए अफ़सर |
पैदा करता है एसा कोई सिलसिला बाबू ||
या ख़ुदा मुझको बचाइये एसी नौबत से |
हो मुक़ाबिल मेरे भी कोई दिलज़दा बाबू ||
डा० सुरेन्द्र सैनी
No comments:
Post a Comment