Sunday, 1 December 2013

अगर तू मान जाती तो

कँवारा मैं नहीं मरता अगर तू मान जाती तो । 
मुझे  हल्दी कोई मलता अगर तू मान जाती तो ॥ 

तेरे अब्बू का दिल तो है कसाई की तरह शायद । 
मैं बकरा भी कभी बनता अगर तू मान जाती तो ॥ 

मेरी दीवानगी पे लोग क्यूँ ये फब्तियाँ कसते । 
मैं तेरे साथ में चलता अगर तू मान जाती तो ॥ 

मेरे रिश्ते की बाबत बात करने पर तेरे घर में । 
मेरा चाचा नहीं पिटता अगर तू मान जाती तो ॥ 

नदीदों की तरह फिरता नहीं यूँ रोज़ गलियों में । 
हमेशा घर में ही टिकता अगर तू मान जाती तो ॥ 

बिगड़ता क्या तेरा मुझसे अगर तू मांग लेती सब । 
तुझे सब कुछ तभी मिलता अगर तू मान जाती तो ॥ 

बला -ए -इश्क़ में 'सैनी ' ने मुझको दे दिया धक्का । 
कभी मैं भी अकड़  पड़ता अगर तू मान जाती तो ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी   

Tuesday, 19 November 2013

नेता

ज़बानी जंग लड़-लड़ कर हमें फुसला रहे नेता ।
समझता ये नहीं कोई कि हमको खा  रहे नेता ॥

मसाइल पर तो चर्चा आजकल होती नहीं कोई ।
फ़क़त इक दुसरे के एब ही गिनवा  रहे नेता ॥

कभी इस दल में जाते हैं कभी उस दल में जाते हैं ।
इलेक्शन में टिकिट मिलता नहीं पछता  रहे नेता ॥

सफ़ाचट झूठ कहते हैं मगर हम अक़्ल के अंधे ।
दिखाकर ख़ाब दिन में हमको यूँ बहका  रहे नेता ॥

ख़ुदा की याद आती है इन्हें इन ही दिनों शायद ।
मज़ार-ओ-मंदिर -ओ-मस्जिद में अब तो जा रहे नेता ॥

विलायत से मिले या हो किसी ज़रदार से हासिल ।
ग़लत हो या सही लोगों में ज़र बरसा  रहे नेता ॥

सलीक़ा -ए -ग़ज़ल तो भूल बैठा आजकल 'सैनी'।
सुना है अब सियासत में उसे भी ला  रहे नेता ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Sunday, 10 November 2013

बुद्धु बता रहा कोई

उसके पैग़ाम ला रहा कोई । 
मुझको उल्लू बना रहा कोई ॥ 

मांगने क़र्ज़ आ रहा कोई । 
नींद मेरी उड़ा रहा कोई ॥ 

हुस्न के ए टी एम से कैसे । 
प्यार मेरा चुरा रहा कोई ॥ 

बेसुरा एसी बारिशों में भी । 
मेघ मल्हार गा रहा कोई ॥ 

मुझको तीमार के बहाने से । 
रोज़ चूना  लगा रहा कोई ॥ 

मेरे जाने के बाद भी शायद । 
उसके घर रोज़ जा रहा कोई ॥ 

बोल 'सैनी'तू कब को सुधरेगा । 
तुझको बुद्धु  बता रहा कोई ॥ 

डा० सुरेन्द्र सैनी 

Monday, 21 October 2013

मुर्दा आशिक़ विदाउट कफ़न

मुर्दा आशिक़ पडा है विदाउट कफ़न सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ।
जब न दिलबर की देखी ज़बीं पे शिकन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

लोग दर्ज़ी से जा कर झगड़ने लगे क्यूँ सिलाई हुई महंगी पतलून की ।
ज़िप के आगे नदारद हुए जब बटन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

जब भी अब्बू को दलिया दिया मील में बारहा हाजमे की शिकायत रही ।
आज देखा चबाते हुए जब मटन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

रोज़ मिलता रहा है रक़ीबों से वो और हमको ही झूठा बताता रहा ।
देखी आँखें हमारी नहीं थे बटन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

आ गयी जब गली में वो चंचल हसीँ मेरे बालों ने माँगा है मुझसे ख़िज़ाब ।
मैं भी लेने लगा रोज़ ही जब टशन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

उम्र परवाज़ लेने लगी रात दिन जोश अब वो कलम में रहा ही कहाँ ।
इश्क़ में देख मेरा ये चाल-ओ-चलन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

थी हसीनाओं की रोज़ फ़रमाइशें कुछ अलग ही कहूँ कुछ निराला कहूँ ।
जब न पूरा हुआ 'सैनी' का ये मिशन सब ही क्या बात क्या बात कहने लगे ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी   

Thursday, 3 October 2013

हिम्मत कहाँ

तेरे कूचे में जो आऊँ अब मेरी हिम्मत कहाँ ।
तेरे घरवालो से पिट कर अब बची ताक़त कहाँ ॥

आ गया घर में तुम्हारे इक विदेशी डॉग जब ।
अब भला ससुराल  में दामाद की इज्ज़त कहाँ ॥

नेट हो या फोन हो तुम चिपकी रहती रात-दिन ।
मुझ ग़रीब आशिक़  का ख़त पढने की है फ़ुर्सत कहाँ ॥

मैं सहेली से तुम्हारी कह तो दूँ क़िस्सा -ए -ग़म ।
पर उसे पिज़्ज़ा खिलाने को रही दौलत कहाँ ॥

आज महँगाई ने तोडी है कमर मेरी सनम ।
इश्क़ में ख़र्चा करूँ तो वो मेरी उजरत कहाँ ॥

फिर रहा हूँ ओढ़ कर मैं अब लिबास-ए -आशिक़ी ।
देखिये ले जायेगी अब ये मुझे क़िस्मत कहाँ ॥

रोज़ समझाता रहा 'सैनी' मगर माना नहीं ।
इश्क़ भूखे पेट करने में भला जन्नत कहाँ ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 1 October 2013

की फ़र्क़ पैंदा है अब

सर से गंजा है तू और काना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ।
घाघ आशिक़ बड़ा ही पुराना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

मेरे कूचे तू में रोज़ पिटता रहा कुछ असर तुझपे फिर भी कभी न हुआ ।
आज तक भी नहीं हार माना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

है लफंगा भी तू और लुच्चा भी तू एबदारी का बेताज है बादशाह ।
सारी शैतानियों का ख़ज़ाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

ढूंढ लेता है सब देख  लेता है सब रोशनी हो या फिर हो अन्धेरा घना ।
एक उल्लू के जैसा सयाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

यूँ  अंदर भरी खूब मक्कारियां तू हसीनों की करता हैं एयारियाँ ।
शक्ल-ओ-सूरत से तो सूफ़ियाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

आशनाई रक़ीबों  से तेरी रही और मुझसे भी निस्बत दिखाता रहा ।
सब रक़ीबों का इक आशियाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

रोज़ कहता है 'सैनी ' की ग़ज़लें बुरी उनका पढ़ना भी तुझको गवारा नहीं ।
फिर भी लगता उसी का दीवाना है तू छड्ड ओ यार की फ़र्क़ पैंदा है अब ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी  

Friday, 13 September 2013

जान हो जाती

तेरे अब्बू से गर मेरी ज़रा पहचान हो जाती ।
तेर कूचे में आमद बस मेरी आसान हो जाती ॥

पड़े हैं आज तक जूते तेरी गलियों में जो मुझको ।
इकठ्ठे गर मैं कर लेता मेरी दूकान हो जाती ॥

ख़ुदा ने दे दिया होता मुझे भी रंग अगर थोड़ा ।
हसीना हर मेरे घर की भी तो मेहमान हो जाती ॥

सुपारी दे गया मेरी तेरा मामू कसाई को ।
तेरी मामी ही ख़ुद अब क्यूँ  नहीं कुर्बान हो जाती ॥

तुझे भेजी थी कल चिठ्ठी दिखादी सबको वो तूने ।
वगरना यूँ न इक चिठ्ठी बबाल-ए -जान हो जाती ॥

महल्ले में अकेला मैं ही इक नाकाम आशिक हूँ ।
ख़ुदाया आशिक़ी मेरी अज़ीम-उश्शान हो जाती ॥

फ़क़ीरी भेस में 'सैनी'मुंडा कर दाढी ,मूछ -ओ -सर ।
अभी भी सोचता है कोई उसकी जान हो जाती ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

जान हो जाती

तेरे अब्बू से गर मेरी ज़रा पहचान हो जाती ।
तेर कूचे में आमद बस मेरी आसान हो जाती ॥

पड़े हैं आज तक जूते तेरी गलियों में जो मुझको ।
इकठ्ठे गर मैं कर लेता मेरी दूकान हो जाती ॥

ख़ुदा ने दे दिया होता मुझे भी रंग अगर थोड़ा ।
हसीना हर मेरे घर की भी तो मेहमान हो जाती ॥

सुपारी दे गया मेरी तेरा मामू कसाई को ।
तेरी मामी ही ख़ुद अब क्यूँ  नहीं कुर्बान हो जाती ॥

तुझे भेजी थी कल चिठ्ठी दिखादी सबको वो तूने ।
वगरना यूँ न इक चिठ्ठी बबाल-ए -जान हो जाती ॥

महल्ले में अकेला मैं ही इक नाकाम आशिक हूँ ।
ख़ुदाया आशिक़ी मेरी अज़ीम-उश्शान हो जाती ॥

फ़क़ीरी भेस में 'सैनी'मुंडा कर दाढी ,मूछ -ओ -सर ।
अभी भी सोचता है कोई उसकी जान हो जाती ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

जान हो जाती

तेरे अब्बू से गर मेरी ज़रा पहचान हो जाती ।
तेर कूचे में आमद बस मेरी आसान हो जाती ॥

पड़े हैं आज तक जूते तेरी गलियों में जो मुझको ।
इकठ्ठे गर मैं कर लेता मेरी दूकान हो जाती ॥

ख़ुदा ने दे दिया होता मुझे भी रंग अगर थोड़ा ।
हसीना हर मेरे घर की भी तो मेहमान हो जाती ॥

सुपारी दे गया मेरी तेरा मामू कसाई को ।
तेरी मामी ही ख़ुद अब क्यूँ  नहीं कुर्बान हो जाती ॥

तुझे भेजी थी कल चिठ्ठी दिखादी सबको वो तूने ।
वगरना यूँ न इक चिठ्ठी बबाल-ए -जान हो जाती ॥

महल्ले में अकेला मैं ही इक नाकाम आशिक हूँ ।
ख़ुदाया आशिक़ी मेरी अज़ीम-उश्शान हो जाती ॥

फ़क़ीरी भेस में 'सैनी'मुंडा कर दाढी ,मूछ -ओ -सर ।
अभी भी सोचता है कोई उसकी जान हो जाती ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी

Monday, 19 August 2013

कभी इश्क़ में मियाँ

देखी न सुब्ह-ओ -शाम कभी इश्क़ में मियाँ ।
आराम था हराम  कभी इश्क़ में मियाँ ॥

सूरत पे एक यूँ ही हमारी नहीं बजा ।
अपना था इक मुक़ाम  कभी इश्क़ में मियाँ ॥

हाथों की उसकी देख हिना दूर हो गया ।
जब-जब हुआ ज़ुकाम  कभी इश्क़ में मियाँ ॥

खा-खा के फ़ास्ट फ़ूड क्यूँ बीमार पड  गए ।
खाओ ग़िज़ा तमाम  कभी इश्क़ में मियाँ ॥

दो चार ही क़दम चले तो थक गए हैं आप ।
आता नहीं क़याम  कभी इश्क़ में मियाँ ॥

क़ासिद गया है जेल में तो हम गए समझ ।
मत भेजिए पयाम  कभी इश्क़ में मियाँ ॥

'सैनी' की ग़ज़लें गौर से पढ़ कर के देखिये ।
आयेंगी तेरे काम  कभी इश्क़ में मियाँ ॥

डा० सुरेन्द्र सैनी   

Thursday, 18 July 2013

ख़त नहीं आते

हुआ   जब   से  शुरू   रम्ज़ान  उनके  ख़त  नहीं  आते । 
हमारी    ज़िंदगी    वीरान   उनके   ख़त   नहीं    आते ॥ 

कभी    होता   है   यूँ  भी  पेट  पर  जब  लात  पड़ती है । 
कि   बेचे   सारे  क़ासिद  पान  उनके  ख़त  नहीं  आते ॥ 

उन्हें   इज़्ज़त  मिली  जब  से   उसीका  ये  नतीजा  है । 
लगा   होने   उन्हें  अभिमान  उनके  ख़त   नहीं  आते ॥ 

विलायत  में  हैं  दादा  फोन  का  स्विच ऑफ रखते हैं । 
परेशानी     में     दादीजान   उनके   ख़त   नहीं   आते ॥ 

परिंदों   जैसे   होते   हैं   विलायत   के   सभी   दिलबर । 
मियाँ   क्यूँ   हो   रहे  हल्कान  उनके  ख़त  नहीं  आते ॥ 

हमारी   जान - ए -जांना   अब  चलाती   हैं  हवाई  बस । 
कभी   लन्दन   कभी   जापान  उनके  ख़त  नहीं  आते ॥ 

सिखा  कर  इश्क़  'सैनी'  को  कभी  डिस्टेंस  लर्निंग से । 
कहाँ   अब  छुप  गए   श्रीमान  उनके  ख़त  नहीं  आते ॥ 

डाo सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 16 July 2013

कुत्ता

मुसीबत  में  हमेशा  डाल   कर रक्खा है बेगम ने । 
मुझे कुत्ता समझ कर पाल कर रक्खा है बेगम ने ॥ 

पड़ोसन ने मंगाली मुझसे सब्जी क्या शराफ़त  में । 
कि रो-रो कर बुरा अब हाल कर रक्खा है बेगम ने ॥   

 निकलने  ही  नहीं  देती  मुझे  घर  से  हवा  खाने । 
 मेरी आज़ादी का दिन टाल कर रक्खा है बेगम ने ॥ 

 निकम्मा  हूँ , निठल्ला  हूँ ,करक्टर से मैं गीला हूँ ।                
 बिना  कंघे  रहूँ  बेबाल   कर  रक्खा   है बेगम  ने ॥ 

मेरे अम्मी-ओ-अब्बू आये घर में छा  गया मातम । 
हज़ारों हैं शिकन मुंह लाल कर रक्खा  है बेगम ने ॥ 

 हमारे  साले-सलहज  आ  गए  तो देखिये घर को । 
 बना कर अब तो नैनीताल कर रक्खा है बेगम ने ॥ 

 पडा  है  'सैनी'  घर  के  एक  कोने  में  लंगोटी  में । 
 न  जाने  कब  से पाएमाल कर रक्खा है बेगम ने ॥ 


 डाo सुरेन्द्र सैनी  

Thursday, 20 June 2013

दुलत्ती

मैं    मैकदे    गया    हूँ   जब-जब   उधार   पीने । 
सच-सच   कहूँ  नहीं  की  मेरी  मदद  किसी  ने ॥ 

जब -जब  किसी  गधे  को  मैं बाप कह के बोला । 
 इन  इनआम  में  दुलत्ती  बस  झाड  दी उसी ने ॥ 

जिन -जिन को मैंने अक्सर ही मुफ़्त में पिलाई । 
मुझको   हुई   तलब  तो  निकले  सभी  कमीने ॥ 

अब   जेब   भी   है  ख़ाली  चेहरा  बुझा-बुझा  है । 
मुझको  न  घास  डाली  इक  भी  तो सुन्दरी ने ॥ 

हर  ब्रांड  की  सजा  कर  रक्खी है घर में सैंडल । 
जिस-जिस  गली  पिटा  हूँ  सौगात  दी सभी ने ॥ 

मारे   इधर-उधर   से   कुछ  मिसरे  शायरों के । 
ग़ज़लों  में  जान  फूंकी  मुझ  जैसे  आदमी ने ॥ 

ग़ालिब  के  बाद 'सैनी ' है  इश्क़  में  निकम्मा । 
फ़ाक़ों   में   कट  रहे   दिन ,साल ,क्या  महीने ॥ 

डा o सुरेन्द्र सैनी 

Tuesday, 21 May 2013

गधा पहलवान होता है

जब   ख़ुदा   मेहरबान  होता है । 
तो   गधा   पहलवान  होता  है ॥

उस  कबाड़ी  की पूछिए हालत । 
जिसका बेछत मकान होता है ॥

जब भी वो पान  खाके आते हैं । 
लाल  मेरा   मकान   होता  है ॥

तब अकेले  गुज़र  नहीं  होती । 
उम्र   का  जब ढलान  होता है ॥ 

इश्क की इब्तिदा  में   अक्सर । 
मुट्ठी  में  आसमान   होता है ॥

कैसे  दे गा तुम्हे  तस ल्ली वो । 
जब   ख़ुदा  बेज़बान  हो ता है ॥

आशिक़ी छोड़ दे तू अब 'सैनी ' । 
तेरा   बेटा   जवान   होता    है ॥ 

डाo  सुरेन्द्र सैनी 

Thursday, 4 April 2013

शादी का लड्डू

शादी   करके   ये  नतीजा  पा   रहे ।
सात  बच्चो  के  पिता  कहला रहे ।।

अब  क़सम  खाई  न  होगा आठवा ।
चारपाई    चोक   में  बिछवा    रहे ।।

फ़ीस    पी   जाती    है  पूरी  सेलरी ।
अब   गुरूद्वारे   में   बच्चे   जा  रहे ।।

मुझपे  ही  बच्चे  गए हैं सब के सब ।
सब  सवालों  में  सिफ़र  ही ला रहे ।।

चमचा ,चिमटा और  बेलन को बजा ।
घर  में  डी जे  का  मज़ा हम पा रहे ।।

शादी  का  लड्डू  तो  खाया दौड़ कर ।
खा  लिया तो अब मियाँ पछता रहे ।।

मान लीजे अब भी 'सैनी ' की सलाह ।
ब्याह   अपना   जो  कराने  जा  रहे ।।

डाo सुरेन्द्र सैनी  

Monday, 1 April 2013

बहानेबाज़

मज़े हूरो के ले भागे कईं लंगूर होली में ।
हमारे वास्ते खट्टे रहे अंगूर होली में ।।

हमारे सामने बेगम कलर फुल हो के जब आयी ।
कि हम तो भुन - भुना कर हो गए तंदूर होली में ।।

मेरी चाहत के क़िस्से सामने जब आ गए फिर तो ।
हुए कुछ पास अपने तो हुए कुछ दूर होली में ।।

बड़ा ही जोश था इस बार कुछ करके दिखाने का ।
मगर हत्थे न चढ़ पाई कोई भी हूर होली में ।।

कुवाँरा ज़िंदगी भर मैं रहा हूँ जिसकी चाहत में ।
लगा कर मांग में आई वही सिदूर होली में ।।

पुरानी थी बीमा री हार्ट की फिर से उभर आयी ।
किया कमबख्त ने हमको बड़ा मजबूर होली में ।।

रहा बेरंग सा 'सैनी ' बताये कैसे हाल-ए -दिल ।
बहानेबाज़ वो सब में हुआ मशहूर होली में ।।

डाo सुरेन्द्र सैनी

Monday, 4 March 2013

क्या करोगे पूछ कर

क़ब्र के मुर्दे का हाल क्या करोगे पूछ कर ।
है ये बेहूदा सवाल क्या करोगे पूछ कर ।।

सर मुंडाया औ र ओले पड़ गए सो पड़ गए ।
अब कहाँ सर के वो बाल क्या करोगे पूछ कर ।।

साठ की दुलहन छबीली और दुल्हा बीस का ।
ये हुआ कैसे कमाल क्या करोगे पूछ कर ।।

चौखटा बिगड़ा हुआ है शक्ल पे बारह बजे ।
ये बनाया किसने हाल क्या करोगे पूछ कर ।।

जिस गली से भी मैं गुज़रा उस गली में ही पिटा ।
इसमें थी किस -किस की चाल क्या करोगे पूछ कर ।।

एक मुझको छोड़ कर ही थे वहां सारे रकीब ।
क्यों बटी जूतों में दाल क्या करोगे पूछ कर ।।

उसकी औलादें पुकारे जिसको अब मामू मियाँ ।
आप उसका हाल-चाल क्या करोगे पूछ कर ।।

है पुराने दौर की जो इश्क़ की बासी कढी ।
ले रही कैसे उबाल क्या करोगे पूछ कर ।।

आशिक़ी में पिट रहे जो उनकी हालत देख कर ।
मैं हुआ क्यों कर निढ़ाल क्या करोगे पूछ कर ।।

इक फ्लाइंग किस लिया था मह्ज़ इतनी बात थी ।
फिर मचा कितना बवाल क्या करोगे पूछ कर ।।

इश्क़ तो तुमने किया तो मार भी भुगतो तुम्ही ।
इसमें 'सैनी ' का ख़याल क्या करोगे पूछ कर ।।

डाo सुरेन्द्र सैनी