Sunday, 23 December 2012

उल्लू बनाएगा


फ़लक   से    चाँद    लाएगा    सितारे   तोड़   लाएगा ।
हसीनो   को ये आशिक़  कब तलक उल्लू  बनाएगा ।।

पड़े    खाने    के    लाले    तन    पे  कपडे भी उधारे हैं ।
रहेगा    ख़ुद     ये    भूखा   और   बीवी  को रुलाएगा ।।

भजन   या   इश्क़   भूखे पेट बिल्कुल  हो नहीं सकता ।
समझ मज्नूं  की औलादों को आखिर कब ये आयेगा ।।

पता   अपने   तो घर का ख़ुद जो अक्सर भूल जाता है ।
सुना    दिलबर   को    लेकर  चाँद के वो पार जाएगा ।।

अगर   ज़ुल्फ़ें     हसीनो   की  घटा  घनघोर लगती हैं ।
बरस   जायेंगी    तो    सचमुच   बड़ा सैलाब आयेगा ।।

अरे    माँ    सब्र   करले अब दवा के बिन गुज़ारा कर ।
तुम्हारा    लाडला      माशूक़ को पिक्चर  दिखाएगा ।।

हिदायत     दी   है  अपने   बेटे   को  मैंने   तजर्बे   से ।
उसी दिन इश्क़  फ़रमाना तू जिस दिन से कमाएगा ।।

मेरी   हालत   पे   अक्सर   तंज़  करती  हैं  हसीनाएं ।
ये    नंगा    क्या   निचौड़ेगा  ये  नंगा क्या नहायेगा ।।

लुटा   दी   सारी   हस्ती   इश्क़ में अब हाथ ख़ाली  है।
बता   'सैनी '  तू    बाक़ी   ज़िन्दगी  कैसे बिताएगा ।।

डाo सुरेन्द्र सैनी  

Thursday, 29 November 2012

क्या करेगी अब

कही जब रात भर ग़ज़लें पढ़ाई क्या करेगी अब ।
सिफ़र आया है पर्चों में लिखाई क्या करेगी अब ।।

गयी  है  मायके  बीबी  डसे  नागिन  सी  तन्हाई ।
कडाके  की  है  सर्दी  तो रज़ाई  क्या करेगी अब ।।

लगी  हो  जिनको  पेचिश  पानी जैसा दूध पीने से ।
यूँ जबरन हज़्म होकर ये मलाई  क्या करेगी अब ।।

शफ़ाख़ाने  में  मुद्दत  से पड़े पर हाल ज्यों का त्यों ।
मुहब्बत  की  बीमारी  में  दवाई  क्या करेगी अब ।।

पचा  कर  शान  से  बैठा  है देखो ज़िं दा दिल बकरा ।
छुरी क़ातिल  कसाई  की  कमाई  क्या करेगी अब ।।

न आई  अब तलक भी नींद ग़ज़लें सुन चुका अस्सी ।
 सुना  भी  दो  तो  इकलौती रुबाई  क्या करेगी अब ।।


कहा   महबूब  को  तुमने  ख़ुदा  तो  क्या  करे  कोई ।
उसी  से  मांग  लो सब कुछ ख़ुदाई क्या करेगी अब ।।

बढ़ा  ली  है  शुगर  इतनी कि तन पर चीटियाँ  दौडे ।
कढाई   चाटिये  खाके   मिठाई    क्या  करेगी अब ।।

हमेशा  गालियाँ  ही   देते  आये  हम   तो 'सैनी ' को ।
लगा  कर  तोहमतें  दे  भी  बधाई  क्या करेगी अब ।।

ड़ा सुरेन्द्र सैनी  

Tuesday, 25 September 2012

जूड़े की जूएँ


जिस  रोज़  से  ज़ुल्फ़ों  में  तेरी  क़ैद  हुआ  हूँ |
जूडे से  तेरे  जूएँ   मैं  चुग -चुग  के  थका  हूँ ||

पिट -पिट  के  हसीनों  से  मैं जेलों में सड़ा हूँ |
कल शाम से मैं  ज़ाती  मुचलके  पे  रिहा  हूँ ||

क्या रंग हो क्या रूप हो मुझको नहीं मतलब |
दुन्या  की  मैं  हर एक  ही  सूरत पे फ़िदा  हूँ ||

मेरे   सभी   साथी   बने   हैं   आज   पिताजी |
बस   आज  अकेला  ही  कुँआरा  मैं  बचा  हूँ ||

हाथों  में हिना मेरे भी लग  जाए  किसी रोज़ |
सालों से मैं बस इक इसी कोशिश में लगा हूँ ||

सजदे   किये   हैं   मैंने  ज़माने  में  सभी  के |
सब  के  ही  मगर  पावँ  से ठुकराया गया हूँ ||

तू ही बता ‘सैनी' भला क्या मुझ में  कमी है |
सूरत से भी सीरत से भी मैं अच्छा भला हूँ ||
  
डा० सुरेन्द्र  सैनी               

Wednesday, 29 August 2012

हुस्न की हड़ताल


हुस्न  वालो   की   हड़ताल  है |
आशिक़ों   का   बुरा   हाल  है ||

चल सियासत में रक्खें क़दम |
कुर्सी  पैसों  की   टकसाल   है ||

सब के मुहं पर यही एक बात |
आज    सरकार    बेहाल    है ||

नुक़्ता  चीं  है   हमारा  सनम |
नोचता    बाल   की  खाल  है ||

ज़ुर्मपेशा     बशर    के  लिए |
बस सियासत ही  तो ढाल है ||

मेरी  बेगम  को  फ़ुर्सत  नहीं |
घर   के पिछवाड़े ससुराल है ||

अस्ल  ख़ातून की   उम्र  क्या |
घटती  जाती  वो  हर साल है ||

सात  बच्चें   हैं  बेगम  कड़क |
शख़्स कितना वो ख़ुशहाल है ||

इश्क़ ‘सैनी ‘से अब क्या करें |
वो  तो  पहले   ही  कंगाल  है ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 20 August 2012

कहीं पे निगाहें


कहीं   पे   निगाहें   कहीं   पे  निशाना |
कभी  साथ  सलमा  कभी   है शबाना ||

किसी  एक  ही   क्यूँ   पीछे   पड़े  हम | 
हुआ  इश्क़  का  ये  तो  फैशन पुराना ||

नहीं   इश्क़   है   ये   मिठाई  के  जैसा |
चने   लोहे   के   भी   पड़े   हैं    चबाना ||

ज़बीं  पर  लिखा  क्या  न जाने हमारी |
हसीना   न  चाहे   कोई   पास    आना ||

ज़बरदस्ती  मेरी   करा   दी   है   शादी |
उसी  दिन  से   भूला  हूँ मैं मुस्कुराना ||

बड़ी   मुश्किलों  से  पटी   इक हसीना |
पडा  रोज़  ही  उसका    कुत्ता  घुमाना ||

पिटाई  से  बचना  अगर  इश्क़  में हो |
कभी नुस्ख़ा ‘सैनी ’का भी आज़माना ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी    
        


Thursday, 16 August 2012

नज़रें फूफी पर


यक़ीनन  मैं  तुझे  हद  से  ज़ियादा प्यार करता हूँ |
बुरा मत मान लेकिन मैं तेरी   फूफी  पे  मरता  हूँ ||

तेरी  सोचों  पे  हावी  याद  उसकी  हो  ही  जाती  है |
लिखूं ख़त में मैं तेरा नाम पर फूफी का लिखता हूँ ||

फ़क़त  मैं  ही  नहीं  थोड़ा  इशारा   है  उधर  से भी |
फंसा हूँ मैं भवंर में  आज मैं  जीता   न  मरता  हूँ ||

तुम्हारे   बाप   ,ताऊ  ,चाचा  ,भाईजान  के  तेवर |
मुझे  अच्छे  नहीं  लगते  हैं  मैं पिटने से डरता हूँ ||

तुम्हारी  फूफी मुझको देखकर जब आह भरती है |
तुम्हारे  फूफा  को मैं गालियाँ तब खूब बकता  हूँ ||

रहेगी  जब  तलक  घर में तुम्हारी फूफी बतला दू |
ये शादी हो नहीं सकती मैं  दावा  आज  करता  हूँ ||

कहो  ‘सैनी ’से  फूफा  और  फूफी   घर  चले  जाएँ|
मैं तब तक अपने घर में पडा आँखों को मलता हूँ ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी   

Tuesday, 31 July 2012

हुस्न-ओ-जमाल


डरता है साक़ी के जब हुस्न-ओ-जमाल से तू |
घर  बैठ  कर   ही  पीले   मेरे   ख़याल  से  तू ||

ख़ुद  की  टपक   रही   है  घुटनों  पे नाक  तेरे |
पर  दूसरों   के    पोंछे    आंसू  रुमाल   से  तू ||

बेख़ौफ़  होके  जो तू ज़ुल्म-ओ-सितम करे है |
वाक़िफ़ नहीं है अब तक रब के जलाल से तू ||

देखा नहीं जो  उसने इक  बार  पीछे  मुड  के |
आंहे क्यूँ भर रहा है रंज-ओ -मलाल   से  तू ||

क्यों  कर  नहीं   बनायेंगे  लोग  उल्लू  तेरा |
लगता  ही  है  अनाडी ज ब चाल ढाल से तू ||

सब उम्र  कट  गई है   जब  मौत  सामने  है |
अब क्या करेगा आख़िरअपने कमाल से तू ||

बिकने को ‘सैनी ’तेरे जब रू -ब -रू  खडा  है |
बेकार  क्यूँ  फिरे  है  मिलता  दलाल  से  तू ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   

Wednesday, 25 July 2012

आम हो जाए


गया  है  बॉस  छुट्टी पर तो इक -इक जाम  हो जाए |
घड़ी  फ़ुर्सत की  है  तो  फिर  ज़रा  आराम  हो  जाए ||

लगाने   आ    गया    अर्ज़ी    बेचारा    गावँ  का  बूढा |
मगर   अर्ज़ी   का  पहले  ही  मुक़र्रर   दाम  हो  जाए ||

रहो घर पर तो बेगम और बच्चों की सुनो चिख-चिख |
यहीं   पर  आज  तो   ये  बस  रंगीली   शाम  हो जाए ||

किसी  ने  लखनऊ  से   भेज   दी  ये  आम  की   पेटी |
तो इक -इक  जाम के पीछे  दशहरी  आम  हो   जाए ||

पियाले  ठीक  से  भरना  किसी को रह न  जाए  कम |
किसी दिन फिर मंगा लेंगे बस अब का काम हो जाए ||

बड़ा  ज़ालिम  हमारा  बॉस   है  सर   पर खडा रहता |
तमाम उसका कहीं पर ए  ख़ुदा  बस  काम  हो जाए ||

समझता है  बड़ा जाहिद ये अपने  आप   को  ‘सैनी ’|
लगा दो मुँह से ज़बरन इसके ये  बदनाम   हो  जाए ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 
  

Monday, 16 July 2012

बुढापे का इश्क़


लड़ाने  इश्क़  निकला  है  ये  सत्तर साल  का बूढा |
बताओ  कैसा   पगला  है  ये  सत्तर साल का बूढा ||

नहीं  हैं  दांत मुंह   में  पेट  से  आंतें  भी  ग़ायब हैं |
ज़बां  से  भी  तो  हकला है ये सत्तर  साल का बूढा || 

घटाओं  सी  नज़र  आती हैं ज़ुल्फ़ें इसके चेहरे पर |
मगर बिलकुल ही टकला है ये सत्तर साल का बूढा || 

ख्यालों  में  जवानी के ये अब  भी  खोया रहता है |
ज़रा  भी  तो न बदला है  ये  सत्तर  साल  का बूढा ||

जवानी  ढूंढता  रहता है अख़बारों  के  नुस्ख़ों   में |
दिखावे  का ही दुबला है ये  सत्तर  साल  का  बूढा || 

ज़माना  कुछ  कहे इसकी बला से इसके ठेंगे  से |
बड़ा  बेशर्म  निकला है ये  सत्तर  साल  का  बूढा || 

अगरचे घर में है  मौजूद   इसके   पांचवी   बीबी |
मगर हर रू पे फिसला है ये सत्तर साल  का बूढा || 

कहीं पर भी हमें रखने नहीं  इसने  दिया है हाथ |
सभी का बाप निकला है ये सत्तर  साल का बूढा || 

जवानी छटपटाती   है करे  क्या  ‘सैनी ’ बेचारा |
ज़ियादा हमसे मचला है ये  सत्तर साल का बूढा || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी       

Friday, 13 July 2012

फ़ज़ीहत होगी


छेड़  कर  उनको  चलोगे  तो  फ़ज़ीहत  होगी |
जब   हसीनो   से  पिटोगे तो  फ़ज़ीहत  होगी || 

आज  वादा  जो  किया  चाट खिलाने का उन्हें |
अपने   वादे   से  फिरोगे  तो   फ़ज़ीहत  होगी || 

हुस्न फूफी का भी उनकी है क़यामत की तरह |
उनकी  फूफी   पे   मरोगे  तो  फ़ज़ीहत  होगी ||

वो   कभी  ख़ुद  ही  हटा  देती हैं  रुख़  से पर्दा |
आप  ये  उनसे  कहोगे   तो   फ़ज़ीहत  होगी || 

जेब  अगर  साथ  दे  तो  रोज़  ही  पीजे दारू |
रोज़  क़र्ज़े   की  पियोगे  तो  फ़ज़ीहत होगी || 

छीन अम्मी ने लिया उनसे जो अब मोबाइल |
फोन  तुम  उनको  करोगे तो फ़ज़ीहत  होगी || 

साथ   बुल्डोग    ख़तरनाक    बड़े  चलते   हैं |
तंज़  अगर  उनपे  करोगे तो  फ़ज़ीहत होगी || 

आजकल  इश्क़  में  भी  जेब  देखी  जाती  है |
इश्क़  अमीरों  से  करोगे तो  फ़ज़ीहत  होगी ||

काम उसका तो है लोगों  को  बनाना  उल्लू  |
बात  ‘सैनी ’की  सुनोगे  तो  फ़ज़ीहत  होगी || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Tuesday, 22 May 2012

उसने माल उड़ाया ख़ूब


उसने    माल    उड़ाया    ख़ूब |
उल्लू     मेरा    बनाया   ख़ूब ||

मन    को  मेरे  लुभाया  ख़ूब |
चूना    रोज़     लगाया   ख़ूब ||

मुझको  धूल  चटा  दी  आज |
उससे   हाथ   मिलाया  ख़ूब ||

राशन  सब  चट  कर  डाला |
घर  पर  यार  बुलाया   ख़ूब ||

कोई     पास    नहीं   फटका |
मैंने      शोर    मचाया  ख़ूब ||

पहली     बार      बना   नेता |
पैसा     देख     कमाया  ख़ूब ||

लूटा     ख़ूब      हसीनों     ने |
मैंने    इश्क़     लड़ाया  ख़ूब ||

क़ाबू   में    वो    नहीं  आया |
मक्खन  रोज़  लगाया  ख़ूब ||

दीवारें     सब     रंग    डाली |
उसको  पान  खिलाया  ख़ूब ||

वो    उस्ताद      बने      मेरे |
जिनको इल्म सिखाया ख़ूब ||

‘सैनी’आज ग़ज़ल  कह कर |
तूने   यार     रुलाया    ख़ूब ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 14 May 2012

नेता जी के वादे


सभी   वादे   निभा   दूंगा   मेरी   सरकार   बनने   दे |
फ़लक   से  चाँद  ला   दूंगा  मेरी  सरकार  बनने  दे ||

तुम्हारे   ताऊ   चाचा    और   सारे   रिश्तेदारों   को |
मैं  कुर्सी  पर   बिठा  दूंगा   मेरी  सरकार  बनने  दे || 

करो  तुम  फ़िक्र  बाक़ी  यार लोगों की नहीं बिल्कुल |
उन्हें   ठेके   दिला   दूंगा   मेरी   सरकार     बनने  दे || 

ग़रीबी   का   जो  रोना  रात  दिन  रोते  नहीं  थकते |
ग़रीबों   को   मिटा   दूंगा   मेरी    सरकार  बनने  दे || 

बढेगा जितना डी. ए. खुश रहेंगे सब के सब अफ़सर |
गरानी   को   बढ़ा   दूंगा   मेरी   सरकार    बनने   दे || 

करोगे   जितने   घोटाले   नहीं   कुछ  आंच आयेगी |
कमेटी   इक   बिठा   दूंगा   मेरी  सरकार  बनने  दे || 

चलो   अब   झोपडी   से   ख़ाब  देखो आप बंगले के |
तुम्हे   बँगला   दिला   दूंगा  मेरी  सरकार बनने दे || 

बग़ावत   कर   गए   जो   पार्टी  से  देखूंगा  उनको |
चने   नाकों   चबा   दूंगा   मेरी   सरकार  बनने  दे || 

फ़टाफ़ट   काम   होंगे  उनके जो रिश्वत खिलाएगा |
नियम   एसा   बना   दूंगा  मेरी  सरकार  बनने  दे || 

मिलेगी  मुफ़्त   स्कूलों   में  दारू  रोज़  बच्चों  को |
नशा  सब  को  करा  दूंगा   मेरी  सरकार बनने  दे || 

नहीं है हद कोई मेरी मैं  कितना  नीचे  गिर  जाऊँ |
ज़माने   को   बता   दूंगा  मेरी  सरकार  बनने  दे || 

मेरे  तन  में  जो  बहता  ख़ून   है  वो ख़ून पानी है |
वतन  को  ही  मिटा  दूंगा  मेरी सरकार बनने  दे || 

न हो ‘सैनी ’तुझे कुछ इल्म तो क्या फ़र्क़ पड़ता है |
तुझे  शायर  बना  दूंगा  मेरी   सरकार   बनने   दे || 

डा० सुरेन्द्र  सैनी       


Wednesday, 9 May 2012

बेगम


फिसल कर आज सीढी से जो नीचे गिर गयी बेगम |
बुलाये  चार  पल्लेदार  तब   की  गई   खडी  बेगम ||

मना का -कर के हम हारे की ऊंची हील मत पहनो |
हज़ारों बार इस मसले पे हम से लड़   चुकी  बेगम ||

नतीजा आज उनके  सामने ये  आ  गया  आख़िर |
ज़नाने  वार्ड  में  अब   खूब  आहें  भर  रही बेगम ||

बची  कूल्हे  की  हड्डी  टूटने  से   ये  ग़नीमत  है |
ज़रा सी मोच  आयी  पैर   में  तो  रो  पडी  बेगम ||

हमारा  एक  पा  घर  में  है  इक  पा  हास्पीटल  में |
चिकन बिरयानी का लेकर मज़ा सुस्ता रही बेगम ||

इशारा  कर  चुके  हैं  डाक्टर  कईं   बार  छुट्टी  का |
बहाने रोज़  कर  – कर के न चलने पर अड़ी बेगम ||

ग़िज़ा खाते हैं हम इतनी असर कुछ  भी नहीं होता |
हुए  हम  सूख  कर  काँटा  हुई  है  थुलथुली  बेगम ||

सभी क़िस्में ख़िज़ाबों   की पडी अलमारियों  में  हैं |
हुई पैंसठ की लोगों से  कहे   इक्कीस  की  बेगम  ||

तड़ी देने का हक़ हर बात पे औरत को हासिल है |
तभी तो मायके जाने की  मुझको दे  तड़ी बेगम ||

नहीं ख़तरा  मुझे  कोई  किसी भी चोर   डाकू  से |
यही तो फ़ायदा मुझको है कि तगड़ी मेरी  बेगम ||

हमेशा  बात  तो  ‘सैनी’ करे  उनसे  मुहब्बत  से |
मगर सीधी नहीं होती कभी भी  नकचढी  बेगम ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी   


Wednesday, 11 April 2012

इश्क़ की हंडिया


जिसे भी देखिये वो इश्क़  की  हंडिया चढ़ा बैठा |
हज़ारों चेलियों के साथ में   खिचड़ी  पका  बैठा ||

मनाया था बड़ी मुश्किल से मैंने  इक परी रू को |
उसे कमबख़्त मेरा  ही चचा  इक दिन पटा बैठा ||

किया था चाट की ठेली पे  उसका  घंटो  इंतेज़ार |
मगर रस्ते में ही कोई उसे पिज़्ज़ा  खिला  बैठा ||

बनाया  हर  घड़ी  उल्लू  मेरा   इन  नाज़नीनों ने |
इन्ही के  फेर में पड़ कर मैं हस्ती  को मिटा बैठा ||

जिधर  से भी गुज़रता हूँ यही  आवाज़  आती   है |
निकम्मा है   ये अपने बाप की लुटिया  डुबा बैठा ||

न जाने क्या लिखा है शक्ल पर मेरी  ख़ुदा ने भी |
जिसे  भी प्यार से देखा  उसी   से  मार  खा  बैठा ||

मरम्मत जब हुई ‘सैनी’की सारा ख़ानदान उसका |
सभी हथियार उस पर आज तक तो आज़मा बैठा ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी  

Tuesday, 20 March 2012

होली का ख़ुमार


पकौड़ी   में   खिला   दी   दोस्तों   ने   भांग   होली   में |
नशे   में   गिर   पड़े   गड्ढे    में   टूटी  टांग  होली  में ||

रुख़ -ए-रोशन पे कीचड का मुलम्मा क्या क़यामत था |
कि   जैसे   हो  गया  सारा  ही   सोना  रांग   होली   में ||

नयी चाची  को पहुंचे  रंग  लगाने   हम  शराफ़त  से |
अड़ा  दी  एन   मौक़े  पर  चचा   ने   टांग   होली  में ||

बिखर   के रह गए  अरमान  सारे  उनको रंगने  के |
नयी  साड़ी  की बीवी   ने जो कर दी मांग  होली में ||

ख़ुमारी भांग की उतरी तो उसने  की  तभी  तौबा |
पिलाएगा न ‘सैनी ’ख़ुद  पिएगा  भांग  होली  में ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 12 March 2012

रक़ीब


मेरे   ख़िलाफ़    उनके   कान   भर   गया   रक़ीब |
एसी   की   तेसी   मेरी   आज   कर  गया  रक़ीब ||

दो   चार   दिन   ही   वो   फ़क़त  नज़र  नहीं  पडा |
मुझको   रहा   मुग़ालता   कि   डर   गया   रक़ीब ||

वो  कब  का  क़ब्र   फाड़   कर  निकल  के आ गया |
मैं   सोचता   रहा   कि   अब  तो  मर  गया  रक़ीब ||

सारी     सुलह    की    कोशिशें    फ़ुज़ूल   ही   गयीं |
अपनी   ही   बात   से   सदा   मुकर   गया   रक़ीब ||

चूना   लगा   गया   वो    आशिक़ों     को    बेधड़क |
जिस - जिस जगह से जब कभी गुज़र गया रक़ीब ||

तब    ही    खड़ी    हुई    हैं     मुश्किलें   बड़ी - बड़ी |
जब -जब  ज़रा  सी  बात  पे  बिफर   गया  रक़ीब ||

घर   से   निकलिए  आप  करके  घर की चोकसी |
निकले   इधर   से  आप  बस  उधर  गया  रक़ीब ||

बारह    बजा    रही   है  शक्ल  आपकी  भी  अब |
क्या  इश्क  का  मज़ा  ख़राब  कर   गया  रक़ीब ||

बदला मिज़ाज  -ए -आशिक़ी बदल गया है प्यार |
क्यों  आप  सोचते  हैं    अब  सुधर  गया  रक़ीब ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Tuesday, 6 March 2012

इस बार होली में


कहीँ पीकर फिसल जाएँ  न हम इस बार होली में |
न पीने की उठाली है  क़सम   इस  बार  होली  में ||



बड़ी मुश्किल से माने हैं सनम इस बार होली  में |
मिलेगी बस हमें दो घूँट  रम  इस  बार  होली  में ||

तमन्ना   है   पियेंगे   दोस्तों   में   ख़ूब  फ़ुर्सत  से |
ज़रा बेग़म से बस बच जाए हम इस बार होली में || 

बड़ी   ही  ख़ूबरू   शक्लें  अभी  आयीं   कालोनी  में |
हमारे   घर   धरेंगी  वो  क़दम  इस  बार  होली  में || 

बड़ी   चालाक   हैं   बेग़म   बड़ी    तैयारियां  की   हैं |
निकालेंगी  हमारे  पेंचो -ख़म   इस   बार  होली  में || 

महीने  के  ये  दिन  हैं  आख़िरी  अब  जेब ख़ाली है |
कि महंगाई से निकला यार दम इस बार होली  में || 

बड़े   मसरूफ़   हैं   शायद  न  वो  इस  बार  आयेंगे |
सतायेगा  हमें  ये  ही  तो  ग़म  इस  बार  होली  में || 

मेरे ख़ालिक़ तू लोगों पर करम इतना किये रखना |
किसी की  आँख हो  पाए  न नम  इस बार होली में ||  

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

चमचें


कम्प्यूटरी डिजाइन मोडल परख नली (टेस्ट ट्यूब )के |
हम  चमचें  ख़ानदानी  इक्कीसवी  सदी  के ||

चमचें  अगर  न  होते  दुन्या  में  आदमी  के |
ये पावँ टिक न पाते कट  जाते  वो  कभी  के ||

परदादा    थे    हमारे    जयचंद   के    पडौसी |
ननसाल  थी   हमारी   पीहर    में  द्रोपदी  के ||

बिन  बात  रोना  धोना पैरों  में गिडगिडाना  |
जिसकी भी हो हुकूमत हम साथ  में उसी के ||

आका कहे जो दिन  है हम  रात क्यों बतायें |
करवा सकें जो चमचें बस में  न है ख़ुदी  के ||

चांदी के चंद सिक्कों में बेच  दें   वतन  को |
मिलते हैं दुश्मनों से जब  हाथ  दोस्ती  के ||

चमचों  से  मात  खाई  हुशियार आदमी ने |
चमचें तो होते ख़ुद के होते न ये किसी  के ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 


Sunday, 26 February 2012

उल्लू


उल्लू    हमारे    शहर    के    बीमार   जब  पड़े |
आये    मिज़ाज     पूछने    लीडर     बड़े - बड़े ||

उद्घाटनों   से   हर   घड़ी   फ़ुरसत  उन्हें   कहाँ ?
फ़रियादी   सूख   कर   हुए   काँटा   खड़े - खड़े ||

साँपों   ने  गिरगिटों  ने  सियासत  संभाल  ली |
अब तो गधों  के  भाव  भी  आकाश  तक  अड़े ||

फ़रमा रहे हैं जिसके  पोते  पोतियाँ  भी  इश्क़ |
उस बेवफ़ा की  राह  में  हम  आज  तक  खड़े ||

अम्मा ने जिसकी बदले हों ख़ाविंद कई -कई |
अचरज ही क्या है बेटा अगर दल  बदल लड़े ||

बेग़म  ने स्टे ले लिया   दी   कोर्ट   में दलील |
अब  छोडिये   ये  चोचलें     बच्चे   हुए  बड़े ||

इन  बेहया  वजीरों का  सर  आसमाँ  में  है |
इनके  ज़मीं  में पैर  कहीं  नीचे   तक  गड़े ||

इज़्ज़त में चार चाँद यूं इनकी लगा दे आज |
तू   फेंक   अंडे   और    टमाटर   सड़े - सड़े ||

जीते  हैं  निर्दलीय   चुनावों  में  जो   कभी |
आंधी  के  आम  से उन्ही पे नोट  तब झडे ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी 

Monday, 20 February 2012

बिल्कुल ही आज


बिल्कुल ही आज तो मियाँ ख़राब लाये हो |
ये  कौन  सी  दुकान   से  क़बाब  लाये  हो ||

साज़िश ज़रूर आज कोई  सरफिरे  ने  की |
पानी   मिली  हुई जो  ये   शराब  लाये  हो ||

मुझ को तो फूटी आँख से कभी  नहीं  देखा |
कमज़र्फ   यार  के  लिए  गुलाब  लाये  हो ||

दो  घूँट   आपसे  कभी  उधार  क्या पी ली | 
क्या अपने साथ आज वो हिसाब लाये हो ||

पहले  ही  नंगा  कर चुकी  है  आशिक़ी  तेरी |
अब  कौन  सा  मिरे  लिए अज़ाब  लाये  हो ||

मैंने  सवाल आज   तक   किया  नहीं  कोई |
क्यूँ  बेवजह  ही तल्ख़  ये  जवाब  लाये  हो ||

कहना ही था बुरा भला मुझे तो फिर ये क्यूँ |
बेकार   अपने   साथ   ये  हिजाब  लाये  हो ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी 

Wednesday, 1 February 2012

चाय-पानी से


चाय -पानी    से   फ़क़त   अब   न  मानता  बाबू |
बात    नोटों     की   करे   क़ीमती   हुआ     बाबू ||

लाख  चिल्लाए  या  सर  को  कोई  पीटे अफ़सर |
यूँ   न   फ़ाइल   का   कभी   देता   रास्ता   बाबू ||

अपनी करनी पे वो आ जाए फिर तो क्या कहने |
तब  तो  बन  जाए  तुम्हारा  ही  दिलरुबा   बाबू ||

बात    इससे    तो    हमेशा   करो   सलीक़े   से |
कुछ  ही  नोटों  में ये  ला  देता  ज़लज़ला  बाबू ||

जो   न समझे  है ख़ुदा को समझ ले वो इसको |
अपने  दफ़्तर  का  वो ख़ुद होता है ख़ुदा  बाबू ||

हो  अगर  टेढा  तो  क़ाबू में आ जाए अफ़सर |
पैदा  करता  है  एसा  कोई  सिलसिला  बाबू ||

या   ख़ुदा  मुझको  बचाइये   एसी  नौबत से |
हो  मुक़ाबिल  मेरे  भी  कोई  दिलज़दा बाबू ||

डा० सुरेन्द्र  सैनी    

Wednesday, 11 January 2012

क्या करें अब


क्या   करें  अब  किसी  का  भरोसा  मियाँ |
लोग     देते    हमें    रोज़    गच्चा   मियाँ ||

पूछ्तें   हैं   सभी   हाल     कैसा     मियाँ ?
क्या   बतायें   उन्हें  हाल  अपना  मियाँ ?

सामने सर सभी के  क्यूँ  धुनता  मियाँ ?
अब यहाँ पर तेरी  कौन  सुनता  मियाँ ?

सब  को  धोखा  जो देते रहे अब तलक |
आज  दुन्या  में  उनका है रुतबा मियाँ ||

ज़ात  क़ातिल  की  है  देख  इतनी  बुरी |
ये   न   तेरा   मियाँ  ये  न  मेरा  मियाँ ||

रात - दिन  उनके  पहलू  में  बैठा  रहे |
हमसे अच्छा विदेशी वो पिल्ला मियाँ ||

अल्टीमेटम  दिया  आज  उसने  मुझे |
इस गली  में  न  आना  दुबारा  मियाँ ||

सर  झुकाते  हैं जो  पैर  पड़ते  अबस |
दूर  उनसे  ही   रहना   हमेशा  मियाँ ||

क्या बचाऊँ कमाई से दिन भर की मैं ?
मांगती है पुलिस  रोज़  हफ़्ता  मियाँ ||

जब  पडी  हो मुसीबत तो इंसान  की |
अक़्ल खाती है कईं  बार धोखा मियाँ ||

देखता हूँ जहाँ में मैं  जैसा  भी  कुछ |
शायरी  में वही  बात  कहता  मियाँ ||

डा०  सुरेन्द्र  सैनी